26 लाख लंबित वनाधिकार दावों की हो दोबारा समीक्षा : सांसद राजकुमार रोत

संवाददाता - संतोष व्यास

नई दिल्ली/डूंगरपुर। संसद में शून्य काल के दौरान बांसवाड़ा-डूंगरपुर सांसद राजकुमार रोत ने आदिवासी समुदाय के वनाधिकार दावों को लेकर केंद्र सरकार को ध्यान देने पर चर्चा की। मानसून सत्र के दौरान सांसद राजकुमार रोत ने कहा कि आजादी से पहले मुगल और अंग्रेज हथियारों से आदिवासियों पर अत्याचार करते थे तो आदिवासी समुदाय डटकर मुकाबला कर उनको परास्त कर देता था, लेकिन आज़ाद भारत में आदिवासियों के खिलाफ सरकारे कलम और कागज़ से लड़ाई लड़ रही है, उसका मुक़ाबला आज आदिवासी समाज नहीं कर पा रहा है।

वनाधिकार अधिनियम 2006 की मूल भावना थी कि जो आदिवासी सदियों से जंगलों में रह रहे हैं, उन्हें जमीन पर मालिकाना हक मिले लेकिन आज भी करीब 26 लाख आदिवासी परिवारों के दावे या तो लंबित हैं या खारिज कर दिए गए हैं। जिन परिवारों के आज वन भूमि में घर बने हुए है और सरकार उन्होंने अतिक्रमणकारी मान रही है और यह 1.50-2.00 करोड़ आदिवासीयों की जनसंख्या है जो आज दर-दर भटक रही है।

सरकार से माँग है कि एफआरए के तहत 26 लाख आवेदन जो पेंडिंग व खारिज कर दिये है, उन्हें दोबारा समीक्षा करने और सभी आदिवासी परिवारों को पट्टा दिया जावे।

इसके साथ ही सांसद राजकुमार रोत ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की उस 2024 की सिफारिश पर भी सवाल उठाया, जिसमें बाघों के पुनर्वास के लिए 4 लाख आदिवासियों को विस्थापित करने की बात कही गई है। सांसद रोत ने तीखा तंज कसते हुए कहा, "अगर बाघों से इतना ही प्रेम है तो उन्हें अधिकारीयों व मंत्रियों के घरों में रखा जाए। आदिवासियों के घरों को बाघों के संरक्षण के नाम से क्यों उजाड़ा जा रहा है?"

मध्यप्रदेश के देवास जिले का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वहां भारी बारिश के बीच आदिवासियों के घर तोड़कर जबरन हटाया गया, जो अत्यंत अमानवीय है।