वरिष्ठ पत्रकार के साथ न्याय में देरी, तीन माह बाद भी पुलिस मौन

जब पत्रकार सुरक्षित नहीं, तो आम जनता की सुनवाई कैसे?

ई दिल्ली।देश की राजधानी दिल्ली, जहां से पूरे देश के लिए कानून-व्यवस्था, महिला सुरक्षा और लोकतंत्र के मानक तय होने चाहिए, वहीं एक वरिष्ठ महिला पत्रकार के मामले में पुलिस की लंबी चुप्पी ने इन तमाम दावों को कठघरे में खड़ा कर दिया है। खबर कवरेज के सिलसिले में संगम विहार थाना क्षेत्र अंतर्गत तिरंगा चौक स्थित 7/20 ब्लॉक में गईं वरिष्ठ ज़मीनी पत्रकार मोमना बेगम की स्कूटी को तीन महीने पहले अज्ञात बदमाशों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। यह घटना उस समय हुई, जब वह अपने पेशेगत दायित्व का निर्वहन कर रही थीं।हैरानी और चिंता की बात यह है कि घटना के तीन माह से अधिक समय बीत जाने के बावजूद दिल्ली पुलिस अब तक न तो प्राथमिकी (FIR) दर्ज कर सकी है और न ही किसी ठोस जांच या कार्रवाई के संकेत सामने आए हैं। राजधानी में एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ ऐसा व्यवहार न केवल पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की सुरक्षा को लेकर भी गंभीर चिंता पैदा करता है।

घटना का पूरा घटनाक्रम: शिकायत के बाद भी सन्नाटा

घटना के तुरंत बाद पत्रकार मोमना बेगम ने थाना संगम विहार में लिखित शिकायत (प्रार्थनापत्र) दी थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि किस तरह खबर कवरेज के दौरान उनके वाहन को जानबूझकर क्षतिग्रस्त किया गया। इसके साथ ही उन्होंने इस पूरे मामले की जानकारी दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों को भी उपलब्ध कराई। आमतौर पर ऐसे मामलों में पुलिस की पहली जिम्मेदारी प्राथमिकी दर्ज कर जांच शुरू करने की होती है, ताकि साक्ष्य सुरक्षित किए जा सकें और आरोपियों की पहचान हो सके।लेकिन इस मामले में तीन महीने बीत जाने के बावजूद न तो FIR दर्ज हुई और न ही किसी तरह की जांच की प्रगति सामने आई। यह स्थिति पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े करती है। क्या शिकायत को गंभीरता से लिया गया? क्या मामले को जानबूझकर लंबित रखा गया? या फिर यह सिस्टम की सुस्ती और असंवेदनशीलता का उदाहरण है?

पुलिस की उदासीनता या व्यवस्था की खामी?

वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि उन्होंने कई बार थाना स्तर पर संपर्क किया, लेकिन हर बार उन्हें केवल मौखिक आश्वासन ही मिले। कार्रवाई के नाम पर शून्य परिणाम सामने आए। यह अनुभव केवल उनका नहीं है; आम नागरिक भी अक्सर ऐसी ही शिकायत करते हैं कि थानों में शिकायत देने के बाद महीनों तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।लेकिन यहां मामला इसलिए और गंभीर हो जाता है क्योंकि पीड़िता कोई आम व्यक्ति नहीं, बल्कि एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो वर्षों से दिल्ली की ज़मीनी समस्याओं, महिला सुरक्षा, प्रशासनिक लापरवाही और सामाजिक अन्याय को उजागर करती रही हैं। यदि एक पत्रकार के मामले में ही पुलिस की प्रतिक्रिया इतनी धीमी है, तो आम नागरिकों की शिकायतों की स्थिति का अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है।

क्या यह सिर्फ तोड़फोड़ थी या डराने की कोशिश?

पत्रकारिता और नागरिक अधिकारों से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि खबर कवरेज के दौरान किसी पत्रकार के वाहन को नुकसान पहुंचाना सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती। यह डराने, चेतावनी देने या चुप कराने का प्रयास भी हो सकता है।अतीत में कई ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जहां पत्रकारों को अप्रत्यक्ष रूप से दबाव में लाने के लिए उनके वाहनों, उपकरणों या निजी संपत्ति को निशाना बनाया गया।ऐसे मामलों में पुलिस की त्वरित कार्रवाई बेहद जरूरी होती है, ताकि यह स्पष्ट संदेश जाए कि कानून पत्रकारों की सुरक्षा के साथ खड़ा है। लेकिन यहां पुलिस की निष्क्रियता ने न केवल पीड़िता की चिंता बढ़ाई है, बल्कि यह भी संकेत दिया है कि अपराधियों को किसी कार्रवाई का डर नहीं है।

क्या दिल्ली पुलिस को किसी बड़ी और अप्रिय घटना का इंतज़ार है?

इस पूरे मामले में सबसे गंभीर और परेशान करने वाला सवाल यही है कि क्या दिल्ली पुलिस वरिष्ठ पत्रकार मोमना बेगम के साथ किसी बड़ी और अप्रिय घटना के घटित होने का इंतज़ार कर रही है, तभी वह हरकत में आएगी?क्या प्रशासन तब ही जागेगा, जब कोई बड़ा हादसा हो जाए? क्या किसी पत्रकार या नागरिक की सुरक्षा तभी प्राथमिकता बनेगी, जब मामला गंभीर हिंसा या जान-माल के नुकसान में बदल जाए?तीन महीने की चुप्पी यह संकेत देती है कि संभावित खतरे को नजरअंदाज किया जा रहा है। यह रवैया न केवल गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि भविष्य में किसी अप्रिय घटना की आशंका को भी बढ़ाता है।इतिहास गवाह है कि कई मामलों में समय रहते कार्रवाई न होने के कारण हालात बिगड़े हैं। सवाल यह है कि क्या इस मामले में भी सिस्टम किसी अनहोनी के बाद यह कहेगा कि ?अब जांच होगी??

जनता की आवाज़ उठाने वाली पत्रकार, खुद न्याय से वंचित

मोमना बेगम उन पत्रकारों में शुमार हैं, जिन्होंने वर्षों से दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों, उपेक्षित इलाकों और संवेदनशील क्षेत्रों में जाकर आम जनता की आवाज़ उठाई है। महिला सुरक्षा, गरीबों की समस्याएं, सरकारी योजनाओं की ज़मीनी हकीकत और प्रशासनिक लापरवाही जैसे मुद्दे उनकी रिपोर्टिंग का अहम हिस्सा रहे हैं।आज वही पत्रकार न्याय की उम्मीद में थानों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं। यह स्थिति केवल एक व्यक्ति का अपमान नहीं है, बल्कि यह पत्रकारिता की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की सुरक्षा पर सीधा सवाल है। यदि पत्रकार खुद असुरक्षित महसूस करेंगे, तो वे निष्पक्ष और निर्भीक रिपोर्टिंग कैसे कर पाएंगे?

महिला सुरक्षा के दावों की सच्चाई

दिल्ली पुलिस महिला सुरक्षा को लेकर समय-समय पर बड़े-बड़े दावे करती रही है। महिला हेल्पलाइन, विशेष पेट्रोलिंग, त्वरित प्रतिक्रिया टीम और सुरक्षा अभियानों की बातें अक्सर प्रचार का हिस्सा बनती हैं। लेकिन जमीनी हकीकत तब सामने आती है, जब एक महिला पत्रकार की शिकायत महीनों तक लंबित रहती है।यदि राजधानी में एक महिला पत्रकार ही सुरक्षित महसूस नहीं कर रही, तो आम महिलाओं का भरोसा कैसे कायम रह सकता है? यह मामला महिला सुरक्षा के दावों की वास्तविकता को उजागर करता है।

कानूनी जिम्मेदारी और विशेषज्ञों की राय

कानूनी जानकारों का कहना है कि संज्ञेय अपराधों में शिकायत मिलते ही FIR दर्ज करना पुलिस की वैधानिक जिम्मेदारी है। सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों के फैसले यह स्पष्ट कर चुके हैं कि प्राथमिकी दर्ज करने में अनावश्यक देरी न्याय के अधिकार का उल्लंघन है।इस मामले में तीन महीने की देरी न केवल प्रशासनिक विफलता को दर्शाती है, बल्कि यह पीड़िता के संवैधानिक अधिकारों पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।

पत्रकार संगठनों और समाज की प्रतिक्रिया

इस मामले को लेकर पत्रकार संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समूहों में भी रोष है। उनका कहना है कि यदि पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की गई, तो लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर होगी।संगठनों ने मांग की है कि तत्काल FIR दर्ज की जाए, निष्पक्ष और समयबद्ध जांच शुरू हो तथा लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाए।

यह सवाल सिर्फ एक पत्रकार का नहीं

अब यह मामला केवल एक स्कूटी तोड़े जाने की घटना तक सीमित नहीं रहा है। यह सवाल उठता है कि क्या राजधानी में कानून सभी के लिए समान है?क्या दिल्ली पुलिस को किसी बड़ी और अप्रिय घटना का इंतेज़ार है, या फिर वह समय रहते कार्रवाई कर पत्रकारों और आम नागरिकों को सुरक्षा का भरोसा दिलाएगी?क्योंकि यदि आज एक पत्रकार की आवाज़ को अनसुना किया गया,तो कल आम जनता की बारी भी आ सकती है।और तब यह सवाल पूछा जाएगा कि सिस्टम ने पहले क्यों नहीं सुना।