शिक्षा के नाम पर चल रही है दुकानदारों की मंडी – पढ़िए ये खुलासा

रिपोर्ट: शारिक ज़ैदी, (बिजनौर)

शिक्षा, जो किसी दौर में समाज को दिशा देने का माध्यम थी, आज निजी स्कूलों के लिए कमाई का जरिया बन गई है। सीबीएसई से एफिलेटेड स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबों को पीछे धकेलकर महंगे निजी प्रकाशनों की किताबें थमाई जा रही हैं। स्कूल अब एजुकेशन सेंटर नहीं, 'एजुकेशनल डीलरशिप' का रूप ले चुके हैं।

किताबों की आड़ में कमीशन की सांठगांठ

आज तमाम नामी स्कूल सीधे निजी प्रकाशकों से टाइअप कर रहे हैं। किताबें लगवाने की एवज में 25% से 50% तक कमीशन तय होता है, जो सीधे स्कूल के खाते में जाता है। इस साझेदारी का असर छात्र की जेब पर पड़ता है ? 60 रुपये की एनसीईआरटी किताब के बदले 500 रुपये की प्राइवेट बुक थमाई जाती है। कुछ स्कूल तो किताबें खुद ही परिसर में बिकवाते हैं, जिससे अभिभावक विकल्प चुनने के हक से भी वंचित रह जाते हैं।

एनसीईआरटी से किनारा क्यों?

एनसीईआरटी की किताबें न केवल सस्ती होती हैं, बल्कि शिक्षाविदों द्वारा शोध और विशेषज्ञता से तैयार की जाती हैं। सरल भाषा, सटीक जानकारी और राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा तैयारी के लिए यह सबसे उपयुक्त हैं। इसके बावजूद स्कूल इन्हें प्राथमिकता नहीं दे रहे। वजह? इनमें कमीशन की गुंजाइश नहीं है।

शिक्षा नहीं, प्रतियोगिता से डराने की तैयारी

कुछ स्कूल महंगे वर्कबुक, मॉडल पेपर और नोट्स को अनिवार्य बना देते हैं, जिससे अभिभावकों पर खर्च का बोझ तो बढ़ता ही है, छात्र भी लगातार प्रदर्शन के दबाव में घुटता है। शिक्षा अब बस्ते का बोझ बन गई है, और क्लासरूम, कोचिंग सेंटर का एक्सटेंशन।

प्रशासन भी जागा है ? लेकिन कितना असरदार?

बिजनौर के जिला विद्यालय निरीक्षक जयकरण यादव ने बताया कि सभी स्कूलों को एनसीईआरटी या समकक्ष किताबें लगाने के निर्देश दिए जा चुके हैं। वहीं जिलाधिकारी जसजीत कौर ने साफ कहा, ?सस्ती और जरूरी किताबें लगाई जाएं, ताकि अभिभावकों पर अनावश्यक बोझ न पड़े।?

मगर सवाल उठता है ? क्या सिर्फ निर्देश काफी हैं?
जब तक एक कड़ी निगरानी प्रणाली, पारदर्शी प्रकाशक-सूचियाँ और शिकायत समाधान पोर्टल नहीं बनेगा, तब तक यह व्यापार यूं ही चलता रहेगा।

क्या शिक्षा अब किताबों की दुकान से तय होगी?

एक ही बोर्ड के छात्रों के पास अलग-अलग पाठ्यक्रम हों, तो शिक्षा में समानता की बात बेमानी हो जाती है। गरीब छात्रों के लिए यह व्यवस्था और कठिन हो जाती है, क्योंकि महंगी किताबें उनके भविष्य को पहले ही छाँट देती हैं।

समाधान की जरूरत

  • हर एफिलेटेड स्कूल की किताबों की सूची ऑनलाइन सार्वजनिक हो
  • स्कूल-पब्लिशर कमीशन डील पर सख्त रोक
  • हर जिले में निरीक्षण समिति गठित हो
  • एक ऑनलाइन शिकायत प्रणाली सक्रिय की जाए


जब शिक्षा खुद व्यापार के नियमों में बंधने लगे, तो उसे सेवा नहीं कहा जा सकता। आज जरूरत है शिक्षा को फिर से समानता और सुलभता के मूल सिद्धांतों की तरफ लौटाने की। वरना एक दिन बच्चे स्कूल बैग नहीं, थैला लिए "बाजार" जा रहे होंगे।
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